स्त्री पर विद्या भंडारी की 4 कविताएं

लड़की

द्वार पर लगे वंदन वार सी वह,
घर की दहलीज की रंगोली सी वह,
बिखर जाती है अपमान की
एक बूँद से ।
रिश्तो का पुल बनाती,
नदी सी तरल वह,
तिरस्कार की
बाढ़ से ढह जाती है वह।
सेमल के फूल सी छुई-मुई सी
मुरझा जाती है कोमल-कमलिनी,
मन के पक्षाघात से।
न जी पाती है,न मर पाती है वह।
तिलस्मी जीवन की भीङ मे
खो जाती है वह।
——–‘
2
पीड़ित बेटी
—–
बक्श दो इन सिसकियो’ को
मत बनाओ इन्हें अपना निवाला ।
कसम खाई थी, नहीं बनूँगी
स्त्री शोषण में भागीदार ।
अब मान रही हूँ इस घटना को भाग्य,
दुबक कर बैठी हूं, भाग्य के कोने में
ले रही हूँ लंबी-लंबी सांसे,
जप रही हूँ-
ओम् त्रयम्बकम् यजामहे।
माँ हूँ ना,
मेरे दर्द की कोई आवाज नहीं,
मेरी कसमों का कोई मूल्य नहीं ।
—-
3
डर लगता है
—–
इससे पहले कि
मेरे शरीर में फफोले पङ जाएँ,
दरारें पड़ जाएँ,
अपने आँचल में समाए रखो माँ ।
मैं बङी नहीं होना चाहती माँ,
डर लगता है ।
नहीं चाहिए मुझे बङा संसार
रहने दो मुझे छोटे खाँचे में ही
डर लगता है
नहीं रास मुझे खरोंचो भरा जीवन
सेमल के फूल सी उङा दी जाऊँगी ,
डर लगता है ।
मुझे नहीं उङना आकाश में,
रहने दो धरती पर ही मुझे,
नहीं देखने मुझे विशाल सपने,
रहने दो मुट्ठी भर सपनों में ही ,
नहीं चाहिए मुझे ताङ सी उम्र,
तुम्हारे आँचल की छाँव के बाहर धूप है माँ,
मुझे आँचल में ही समाए रखो माँ ।

मुझे आँचल में ही समाए रखो माँ ।

4
स्त्रीत्व
—-
स्त्रीत्व को बचाने के लिए
तुम्हें ही उठानी होगी गर्दन ।
लिपस्टिक की जगह रखनी होगी
पर्स में एक छुरी या दांती।
उठो,
रंगीन चश्मे उतारो,
जुबान का ताला खोलो
कुछ नये शब्द जोङ
अपने शब्द कोश में ।
उठो,
स्वयम् बनो अपनी रक्षक,
साहस की हर जङ में
छुपा होता है एक मजबूत वृक्ष ।
—–

शुभजिता

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